कमी

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कमी मुझमें थी तो दोष किसी और को क्यों दुं

मुझे मेरों ने साथ नही दिया गैरों से कैसी उम्मीद यकीदा मेरो पें था बगल मे रहकर खंजीरे मेरो ने खुपसा

कमी मुझमें थी तो दोष किसी और को क्यों दुं

बडे विश्वास के साथ अपनो पे भरोसा करके लढाई लढ रहा था.! मुझे क्या पता था ऐन मौके पर मेरे अपने गैरोसे गुप्त मे हाथ मिलाये थे

कमी मुझमे थी तो दोष किसी और को क्यों दुं

लढाई में जब हार हुई तो सब अपने गैरोंके  कबीले में शमील हुये मैं अकेला रहा मुझे पता ही नहीं चला ये  कैसा हुआ.

कमी मुझमे थी दोष किसी और को क्यों दुं

मुझे मेरे अंध विश्वासने मारा अपनो के खुनमे तो गैरो का खुन था मै हर पहल उनकी बेहिसाब कदर करता, पर उनके दिल में मेरे लिये नफरत थी मैं समज ना सका

कमी मुझ मे थी दोष किसी और को क्यों दुं

गलत मैं था सजा मुझे मीली शुक्र है मेरे उनका जा मेरे रहकर भी मेरे न थे

कमी मुझ में थी दोष कीसी और को क्यों दुं

 

 

*महेबूब दस्तगीर पठाण*

*अधिस्विकृतिधारक संपादक*

*उमरगा टाईम्स*

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